18-01-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन 

साक्षात्कार मूर्त और फरिश्ता मूर्त बनने का निमन्त्रण

पवित्र भव और योगी भव का अमर वरदान देने वाले, सर्व आत्माओं के स्नेही, परमपिता शिव बोलेः-

सर्व-स्नेही आत्माओं को स्नेह का रेसपांस (जवाब) स्नेह से दे रहे हैं। नैनों के असुवन मोती, गले की माला जो बच्चों ने बापदादा  को पहनाई है, उसके रिटर्न में ज्ञान-रत्नों की माला बापदादा दे रहे हैं। आज अमृत वेले हर-एक स्नेही बच्चे का संकल्प बापदादा के पास पहुँच गया। हर- एक की रूह-रूहान, हर-एक का शुभ संकल्प, हर-एक का किया हुआ वायदा पहुँचा। उस सर्व रूह-रूहान के रेसपांस में बापदादा स्वयं अव्यक्त में मिलने की तमन्ना (अभिलाषा) कर रहे हैं। बाप को बच्चे व्यक्त में बुलाते हैं और बाप बच्चों को अव्यक्त वतन में बुला रहे हैं। अव्यक्त वतन-वासी बाप-समान बनना - यही बच्चों के प्रति बाप की शुभ इच्छा है। अब बताओ, कितने समय में अव्यक्त वतन पधारेंगे? अव्यक्त वतन का मिलन कितना सुन्दर है - उसको जानते हो? 

बापदादा भी बच्चों के सिवाय वापिस घर नहीं जा सकते हैं। घर जाने से पहले अव्यक्त फरिश्तों की महफिल अव्यक्त वतन में होती है। उस महफिल में बापदादा सब स्नेही बच्चों का आह्वान कर रहे हैं। बच्चे बाप का पुरानी दुनिया में आह्वान करते व बुलाते हैं लेकिन बाप आप बच्चों को फरिश्तों की दुनिया में बुला रहे हैं, जहाँ से साथ-साथ रूहों की दुनिया में चलेंगे। यह अलौकिक अव्यक्त निमन्त्रण भाता है? अगर भाता है तो क्या व्यक्त जन्म, व्यक्त भाव भूलना नहीं आता है? बाप समान निरन्तर फरिश्ता बनना नहीं आता? एक सेकेण्ड का संकल्प निरन्तर दृढ़ करना नहीं आता? बनना ही है, आना ही है - ऐसे सेकेण्ड के संकल्प की टिकटें लेनी नहीं आती? क्या शक्ति रूपी खज़ाना होते हुए भी यह टिकट रिजर्व नहीं करा सकते? विश्व की सर्व आत्माओं को नजर से निहाल कर उन्हें भी अपने साथ मुक्ति-जीवनमुक्ति रूपी वर्सा बाप से नहीं दिला सकते हो? बाप के या अपने भक्तों को भटकने से जल्दी-से-जल्दी छुड़ाने का शुभ संकल्प तीव्र रूप से उत्पन्न होता है? रहमदिल बाप के बच्चे हो; दु:ख-अशान्ति में तड़पती हुई आत्माओं को देखते हुए सहन कर सकते हो? क्या रहम नहीं आता? अनेक प्रकार के विनाशी सुख-शान्ति में विचलित हुई आत्माएँ, जो बाप को और अपने आप को भूल चुकी हैं, ऐसी भूली हुई आत्माओं पर कल्याण की भावना द्वारा उन्हें भी यथार्थ मंज़िल बता कर अविनाशी प्राप्ति की अंजलि देने का संकल्प उत्पन्न नहीं होता? 

अब तो समय-प्रमाण सप्ताह कोर्स के बजाय अपने वरदानों द्वारा, अपनी सर्वशक्तियों के द्वारा सेकेण्ड का कोर्स बताओ; तब ही सर्व आत्माओं को रूहों की दुनिया में बाप के साथ ले जा सकेंगे। अशरीरी भव, निराकारी भव, निरहंकारी और निर्विकारी भव का वरदान, वरदाता द्वारा प्राप्त हो चुका है न? अब ऐसे वरदान को साकार रूप में लाओ! अर्थात् स्वयं को ज्ञान-मूर्त, याद-मूर्त और साक्षात्कार-मूर्त बनाओ। जो भी सामने आये, उसे मस्तक द्वारा मस्तक-मणि दिखाई दे, नैनों द्वारा ज्वाला दिखाई दे और मुख द्वारा वरदान के बोल निकलते हुए दिखाई दें। जैसे अब तक बापदादा के महावाक्यों को साकार स्वरूप देने के लिए निमित्त बनते आये हो, अब इस स्वरूप को साकार बनाओ। 

बापदादा बच्चों के स्नेह, सहयोग और सेवा पर बार-बार सन्तुष्टता के पुष्प चढ़ा रहे हैं। मेहनत पर धन्यवाद दे रहे हैं। साथ-साथ भविष्य के लिये निमन्त्रण भी देते हैं कि अब जल्दी,जल्दी तीव्र गति से हो रही ईश्वरीय सेवा को सम्पन्न करो, अर्थात स्वयं को बाप-समान बनाओ। बाप के आह्वान की पसारी हुई बांहों में समा जाओ और समान बन जाओ! स्नेह का प्रत्यक्ष स्वरूप है - समान बन जाना! 

आज ही बापदादा के साथ चलोगे? ऐसे एवर रेडी  हो या रही हुई सेवा का शुभ सम्बन्ध खींचेगा? सर्व कार्य सम्पन्न कर दिया है या अभी रहा हुआ है? वह फिर वतन से करेंगे? एक सेकेण्ड में सर्व सम्बन्ध के लिए सेवा भुलाने का पुरूषार्थ करते हो। ऐसे ही अपना निजी-स्वरूप व वरदानी स्वरूप सदा स्मृति में रहना चाहिए। अपवित्रता का और विस्मृति का नाम-निशान भी न रहे। इसको कहा जाता है - वरदान का कोर्स करना। ऐसा कोर्स किया है या करना है? 

जैसे आप लोग साप्ताहिक कोर्स समाप्त करने के सिवाय किसी भी आत्मा को क्लास में जाने नहीं देते हो, ऐसे ही ब्राह्मण बच्चे, जो यह प्रैक्टिकल कोर्स समाप्त नहीं करते, तो जानते हो कि बापदादा उन्हें कौन-से क्लास में जाने नहीं देतें? वे फर्स्ट-क्लास में दाखिल नहीं हो सकते। फर्स्ट क्लास कौन-सा  है? जब आप लोग उन्हों को क्लास में जाने नहीं देते तो ड्रामा भी फर्स्ट-क्लास में जाने का अधिकारी नहीं बना सकता। फर्स्ट क्लास में जाने के लिए यह दो मुख्य वरदान प्रैक्टिकल रूप में चाहिए। विस्मृति व अपवित्रता क्या होती है? - इसकी अविद्या हो जाए। तुम संगम पर उपस्थित हो ना? तो ऐसे अनुभव हो कि यह संस्कार व स्वरूप मेरा नहीं है बल्कि मेरे पूर्व जन्म का था। अब नहीं है। मैं ब्राह्मण हूँ और ये तो शूद्रों के संस्कार व स्वरूप है ऐसे अपने से भिन्न अर्थात् दूसरे के संस्कार हैं - ऐसा अनुभव होना, इसको कहा जाता है - न्यारा और प्यारा। जैसे देह और देही दोनों अलग-अलग दो वस्तुएं  हैं, लेकिन अज्ञान-वश दोनों को मिला दिया गया है; मेरे को मैं समझ लिया गया है और इसी गलती के कारण इतनी परेशानी, दु:ख तथा अशान्ति प्राप्त की है। ऐसे ही यह अपवित्रता और विस्मृति के संस्कार, जो मेरे, अर्थात् ब्राह्मणपन के नहीं हैं; शूद्रपन के हैं, इन को भी मेरे समझने से माया के वश हो जाते हैं और फिर परेशान अर्थात् ब्राह्मणपन की शान से परे (दूर) हो जाते हो। यह छोटी-सी भूल चेक (जाँच) करो कि यह मेरा संस्कार तो नहीं, यह मेरा स्वरूप तो नहीं। समझा? तो इस वरदान - पवित्र भव और योगी भव - को प्रैक्टिकल स्वरूप में लाओ; तब ही बाप-समान और बाप के समीप जाने के अधिकारी बन सकते हो। 

आज कल्प पहले वाले, बहुत काल से बिछुड़े हुए बाप की याद में तड़पने वाले व अव्यक्त मिलन मनाने के शुभ संकल्प में रमण करने वाले, अपनी स्नेह की डोर से बापदादा को भी बान्धने वाले, अव्यक्त को भी आप-समान व्यक्त में लाने वाले, नये-नये बच्चे व साकारी देश में दूर-देशी बच्चे जो हैं, उन्हों के प्रति विशेष मिलने के लिये बापदादा को भी आना पड़ा है तो शक्तिशाली कौन हुए? बांधने वाले या बन्धने वाले। बाप कहते हैं - वाह बच्चे वाह! शाबाश बच्चे! नयों के प्रति विशेष बापदादा  का स्नेह है क्योंकि निश्चय की सदा विजय है। विशेष स्नेह का कारण यह है कि नये बच्चे सदा अव्यक्त मिलन मनाने की मेहनत में रहते हैं। अव्यक्त रूप द्वारा व्यक्त रूप से किये हुए चरित्रों का अनुभव करने के सदा शुभ आशा के दीपक जगाये हुए रहते हैं। ऐसी मेहनत करने वालों को फल देने के लिए बापदादा को भी विशेष याद स्वत: ही रहती हैं। इसलिये बापदादा आप की याद, आज की गुडमार्निंग व नमस्ते पहले विशेष चारों ओर के नये-नये बच्चों को दे रहे हैं, साथ में सब बच्चे तो हैं ही। अव्यक्त रूप में अव्यक्त मुलाकात तो सदाकाल की है। ऐसे वरदाता बच्चों को याद-प्यार और नमस्ते।

अव्यक्त वाणी का सार

1. स्नेह का प्रत्यक्ष स्वरूप है - बाप के समान बन जाना। 

2. बाप की वत्सों के प्रति यही शुभ इच्छा है कि वे बाप के समान बनें। 

3. घर जाने से पहले अव्यक्त फरिश्तों की महफिल अव्यक्त वतन में होती है। इस महफिल में सर्व-स्नेही बापदादा बच्चों का आह्वान कर रहे हैं। 

4. अब तो समय-प्रमाण साप्ताहिक कोर्स की बजाय अपने वरदानों द्वारा और अपनी सर्वशक्तियों द्वारा सेकेण्ड का कोर्स कराओ। तब ही आप सर्वआत्माओं को बाप के साथ रूहों की दुनिया में ले जा सकोगे। 

5. पवित्र-भव और योगी-भव - ये वरदान प्रैक्टिकल स्वरूप में लाओ। तब ही बाप समान बन सकते हैं और बाप के समीप जाने के अधिकारी बन सकते हो। 

6. विस्मृति और अपवित्रता क्या होती है, उसकी भी अविद्या हो जाय - इसको कहा जाता है वरदान का कोर्स करना।